माँ । अक्सर लिखने को शब्द उपयुक्त होता था आरम्भ उचित मिलता था , जब बात माँ के विषय मे लिखने की आयी तो न आरम्भ समझ आता है न अंत समझ पाता हूँ । फँसा मैं ऐसी मझधार में जहाँ विषय वस्तु चयन नहीं कर पाता हूँ । आरम्भ कहीं से करता हूँ, दूजा प्रमुख पाता हूँ, दूजे को लिखने जाता हूँ, अनंत समुख पाता हूँ । माँ के ममता का उचित आरम्भ नही ढूंढ पाता हूँ उनके छमता का कोई अंत नही आंक पता हूँ । धरातल पर दिव्य उन्हें ही पाता जब प्रभु पूजन को जाता ममता के मूरत का अमिट सृजन उन्हें ही पाता हूँ । ( माँ का न आरम्भ है न अंत ये तो प्रेम है अनंत )