प्रेम की दास्ताँ ।
अजीब है ये प्रेम की दास्ताँ हमारी , चाहत है उनकी बे इम्तहाँ मुझ से, दिखती है कभी दिल पे पंखुरियाँ गुलाब की बरसा कर , तो कभी कांटे चुभा कर । उन्हें कोन समझाये चाहत भी हमारी है , प्रेम भी हमारा है । फिर क्या काँटों का भाग और क्या गुलाब की पंखुरियाँ हमें तो लगती सब एक समान ...।